वृष राशि

Rashi Description

चक्र की द्वितीय राशि वृष स्थिर स्वभाव की सौम्य प्रकृति की स्त्री सूचक राशि है। पृथ्वी तत्व और दक्षिण दिशा का नियमन करने वाली या राशि मानव शरीर में मुख को संवेदित करती है। यह पृष्ठोदय राशि है। इस राशि का स्वामी शुक्र है। चन्द्रमा इसमें उच्च का होता है। 4 से 30 अंश तक चन्द्रमा मूल त्रिकोण में संस्थित होता है। राहु इसमें उच्च और केतु नीच का होता है। इसका नैसर्गिक स्वभाव स्वार्थपूर्ण, विवेकपूर्ण, परिश्रम सम्पन्न और सांसारिक व्यवहार में कुशल आचरण होता है। वृष लान की गणना श्रेष्ठ लानों में की जाती है। इस लग्न में जन्मे लोग भाग्यशाली, धनी, सुखी व यशस्वी होते हैं। या कालपुरुष की ग्रीवा का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा वृषभ राशि का सांकेतिक चिन्ह दोनों ओर विशाल सौंग युक्त बैल अर्थात् वृषभ है। वृष लग्न वाले जन्मांग से सन्दर्भित जातक प्राय: क्षीणकाय होता है। उसका मुंह गोल, गर्दन छोटी-मोटी और जंघा पुष्ट होती है। कन्धे बलशाली और उन्नत तथा बाहु छोटे-गठीले होते हैं। उसके मुखाकार पर आत्मसम्मान और अभिजात मानसिकता के चिन्ह अंकित रहते हैं। उसमें द्वेष का पर्याप्त पुट रहता है। संगीत, वस्त्राभूषण, आकर्षण वस्तु और पर्यटन के प्रति सहज रुचि होती है। उसके व्यवहार और उसकी गति-मति में अद्भुत सुनिश्चितता होती है। ऐसे व्यक्तियों को सहज ही मोटा हो जाने का भय होता है। वृष लग्न की जातिकाओं के शारीरिक सौन्दर्य में उनके पैरों तथा नितम्ब प्रदेश की मांसल सुडौलता का सर्वाधिक महत्व होता है। उनके नेत्र विशाल और सुन्दर होते हैं, कान प्राय: बड़े होते हैं, मस्तक चौड़ा होता है और देखने में भव्य आकृति होती है। वृष लग्न के जातक में कभी-कभी स्वाभिमान अहंकार का रूप ले लेता है। अपनी त्रुटिपूर्ण बात पर भी दृढ़ रहते हैं। ऐसा जातक बहुत प्यार करने वाला तथा इस सन्दर्भ में सच्चा होता है। अधिकार-प्रियता, उद्विग्न चित्तावस्था और शान्ति प्रियता उसकी प्रकृति होती है। वह धैर्य, सहिष्णुता, धूर्तता और ईर्ष्या से ओत-प्रोत रहता है। उसे दु:ख में अत्यन्त सहनशीलता प्राप्त रहती है। किसी अन्य के परामर्श से उसे वितृष्णा होती है और प्रत्येक कार्य वह अपने मन के अनुकूल करता है। वह दयापूर्ण, सदाशयी, सौभाग्यशाली और कामी होता है। विवाद में रुचि और गति प्राप्त रहती है। चित्तवृत्ति गूढ होने के कारण हृदय का तथ्य शीघ्र उद्घाटित नहीं होता। अपने आनन्दोपभोग हेतु सचेष्ट रहता है। मित्रों की संख्या बहुत होती है। वह धनी और मृदुभाषी होता है। जीवन का मध्य और अन्त अपेक्षाकृत अधिक सन्तोषप्रद होता है। भाग्योदय अकस्मात् होता है। भूमि, पशुधन तथा प्रचुर द्रव्य का स्वामी बनता है। जातक गुरुजन-सम्मान में प्रवृत्त रहता है। यदि कन्या हो तो बलात् ही आकर्षण का केन्द्र बनती है, उसे देखकर ही पूर्ण कन्यावत् स्वभाव तथा स्वरूप का बोध होता है। वृषभ लग्न में जन्म लेने वाले व्यक्ति की बात यदि ध्यान-पूर्वक न सुनी जाये तो उसे बहुत क्रोध आता है। यहां तक कि अधिक क्रोध आने पर वह वृषभ की तरह क्रोध करता है। उन्हें अपनी बौद्धिक क्षमता पर पूर्ण विश्वास होता है तथा अपने स्थायी सिद्धान्तों पर दृढ़ रहता है। इनमें गजब की सहनशक्ति होती है, उनमें एक प्रकार की गुप्त शक्ति और विशिष्ट उर्जा सन्निहित रहती है। अपने विचारों पर अमल करते हैं व प्यार और आनन्द तथा मनोरंजन आदि उनकी कमजोरी होती है। सन्तान से सम्बद्ध सुख अपेक्षाकृत कम होता है। वृष लग्न के व्यक्तियों के व्यक्तित्व में एक चुम्बकीय आकर्षण होता है। जातक का मुंह गोल, गर्दन छोटी परन्तु मोटी और जंघा पुष्ट होती है। वह प्रायः दुबला हुआ करता है। उसके कंधे बलिष्ठ तथा उन्नत और उनके वाहु छोटे तथा गठीले होते हैं। उसके चेहरे से प्रतिष्ठा तथा सई शके लक्षण प्रकट होते हैं। वह सङ्गीत, आभरण, मनोहर वस्तु और भ्रमण का प्रेमी होता है। उसके व्यवहार तथा अभ्यास निश्चित प्रकार के होते हैं । वह अधिकार-प्रिय, चिड़चिड़े स्वभाव का, शान्ति-प्रिय, धोर, सहिष्णु, दुख म धैर्य धारण करने बाला, धूर्त और कुटुम्बियों से दाह करने वाला होता है। ऐसा जातक प्रत्येक बात को अपने विचारानुसार करता है । वह दूसरे के परामर्श पर चलना ही नहीं चाहता। वह दयालु, सदाशय, विद्या-विवाद में चतुर, भाग्यवान् और कामी होता है। वह सर्वदा आनन्द तथा सुख के अन्वेषण में रहता है। वह चित्त का बड़ा गम्भीर, गाढ़ा और दूसरे को अपना विचार ज्ञात नहीं होने देता है। वह विचार- शोल और शान्त प्रकृति का होता है । उतावलेपन से किसी काम को नहीं करता । उसका जीवन शान्तिमय होता है। उसके बहुत से मित्र होते हैं। वह धनी, मिष्ट-भाषो, प्रिय तथा दयालु होता है। मध्य जीवन और अन्त जीवन विशेष सुखमय होता है भाग्योदय प्रायः एकाएक होता है, सम्पत्ति अथवा पृथ्वी सम्पत्ति को प्राप्ति होती है। वह बहुत से चौपाये, गौ इत्यादि का मालिक होता है और गुरुजनों का आदर करने में तत्पर रहता है। वृष लग्न वाले के लिये एक विलक्षगता यह है कि आरम्भिक जीवन में वह अनेक यन्त्रगाओं से पीड़ित रहता है। परन्तु जीवन के शेषभाग में विजयी होकर सुख-सम्पत्ति से आनन्दित हो जाता है। कन्या होने से कुछ विशेष गुण-दोषः वह बुद्धिमतो, विदुषी, सुशीला, विश्वसनीय और कलाकौशल को जानने वालो तथा अपने पुरुष को आज्ञाकारिणी होकर पुरुष पर अपना अधिकार जमाने वाली होती है। वृष लग्न वाले जातक के लिये शनि बहुत उत्तम होता है। शनि नवमेश एवं दशमेश होने से स्वयं राज-योग देने वाला होता है। इसी प्रकार रवि भी शुभफल देने वाला होता है । शु., चं. और वृ. ऐसे जातक के लिये अच्छे नहीं होते। यदि रवि को बुध अथवा शनि को बुध से सम्बन्ध हो तो सुखदायी योग होता है। ऐसे जातक के लिये गुरु प्रायः मारकेश होता है । चंद्रमा और शुक्र का मारकेश निर्बल होता है । १३.३३से १६.३३ अंश अर्थात पञ्चम नर्वाश में लग्न के रहने से प्राकृतिक स्वभाव विशेष रूप से प्रकट होता है । चेतावनी ऐसे जातक को छाती और कण्ठ जनित रोगों का प्रायः भय होता है। गर्म तथा रौगनदार भोजन हानिकारक होता है। भोजन के परिमाण पर विशेष ध्यान देना उचित है । उत्तेजना देने वाले तथा जल्दीवाजी के कामों से सर्वदा सचेत रहना होगा। ऐसे जातक के लिये समयानुसार अपने कार्य को निर्भयता रूप से करना सर्वदा उपयोगी होता है और व्यायाम उसके लिये अनिवार्य है। जीवन को संतुलित रखना, धन की सुरक्षा के लिए इच्छुक रहना इनकी आदत में होता है | और जीवन के विषयों बारे में व्यावहारिक होते है | ये सांसारिक होता हैं | यह सुनिश्चित करते हैं कि परिवार अच्छी तरह से रहे, धन से एवं जीवन के प्रयोगात्मक पहलू में | परिवार की ओर से निराशा - अगर परिवार का मिजाज बदलता है, तो उन्हें यह पसंद नहीं है | पारिवारिक बोलचाल कभी अच्छी, कभी बुरी (यदि बुध शुभ न हों) | धन की समझ रखने वाला, कभी धन में वृद्धि कभी कमी परन्तु बहुत बड़ा अंतर कभी नहीं होता । धन संग्रह में छोटा मोटा अंतर आता रहता है | भाई-बहन/नवजात शिशु के साथ बातचीत हमेशा शांत, सहज (चंद्रमा)| निकट सम्बन्ध जैसे बातचीत में उतार-चढ़व आता रहता हैं | भाई-बहन से कुछ अधिकाँश दूर यदि चन्द्रमा शुभ न हों | यदि चंद्रमा शुभ हो, तो भाई बहनों से जुड़ कर रहता है | वृषभ लग्न के जातक प्रायः जीवन के अंत में परिवार के समक्ष पिता का स्थान पाते हैं | अच्छे निर्णय लेना, परिवार में अच्छा स्थान इनको मिलता है | ये प्रायः पिता के कार्य को आगे बढ़ाते हैं, स्त्री हो तो पति के कार्य को आगे बढ़ाते हैं | ये परिवार की प्रत्येक गतिविधि को नियंत्रित करते है, यहाँ तक की बच्चे ये करेंगे, ये नहीं करेंगे | वे अच्छे माता पिता और संतान सिद्ध होते हैं | ये स्वयं में व्यस्त रहते होगे, और इनकी संतान स्वयं को नजरंदाज किया हुआ मानती है | ये बच्चों को स्वक्छंद छोड़ देते है, ऑफिस से लेट आना घर पर आकर भी व्यस्त रहना इनके लक्षण होते हैं | ऐसे लोग प्रायः, बच्चों के किसी विशेष दिन को भी व्यस्तता के कारण उपस्थित नहीं हो पाते | इनकी पत्नी स्वयं को दबा कर रखती हैं, बहुत भावुक, संवेदनशील एवं जुनूनी महिला होती हैं | इनका वैवाहिक जीवन एक समझौता होता हैं, दोनों ही स्वयं को फंसा हुआ समझते हैं | प्रायः एक दुसरे को आकर्षित करना चाहते हैं, परन्तु बहुत ही संतुलित वैवाहिक जीवन जीते हैं | यह बहुत रोमांटिक नहीं होते हैं | वे यात्रा करना पसंद करते है, प्रायः यात्रा कार्य के सम्बन्ध में ही होती हैं | ये बहुत रोमांटिक न होकर, बहुत प्रैक्टिकल होते हैं |

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Computations

वृषभ लग्न के लिये शुभाशुभ योग (१) शुभयोग:-शनि नवम (त्रिकोण) और दशम (केन्द्र) स्थानों का स्वामी होने से श्लोक ७ के अनुसार स्वयं अकेला ही राजयोगकारक है और उसमें यदि उसका योग शुभग्रहों से होता हो तो अतिश्रेष्ठ राजयोग के फल प्राप्त होते हैं । "भावार्थ रत्नाकर" नामक ग्रंथ में वृषभ लग्न को शनि अकेला राजयोग नहीं करता ऐसा कहां हुआ है। (२) शुभयोग :-बुध द्वितीय स्थान का (मारक स्थान का) स्वामी होकर पंचम (त्रिकोण) स्थान का अधिपति होने से श्लोक ६ के अनुसार शुभ है । यह मध्यम योग है। "शनिशशीसुती” और "शनिदिवाकरी" पाठान्तर बराबर दिखाई पड़ता है। बुध के बारे में ऊपर कह चुके हैं। रवि चतुर्थ केन्द्र का स्वामी होने से श्लोक ७ के अनुसार शुभ होकर शुभफल करने वाला है। रवि शनि का शत्रु है और इनका योग उत्कृष्ट राजयोग नहीं कर सकेगा। इसकी जगह बुध + शनि यह उत्कृष्ट राजयोग बन सकता है। (1) अशुभयाग-गुरु अष्टम स्थान का स्वामी तथा एकादश स्थान कास्वामी होने से श्लोक ६ और ६ के अनुसार अशुभ होता है । और मृत्युकारक अशुभफल देने वाला होता है। (२) अशुभयोग :--शुक्र पष्ठ स्थान का अधिपति होने से श्लोक ७ एवं १० के अनुसार अशुभ होकर अशुभफल देने वाला (मृत्युकारक) होता है। (३) अशुभयोग - चन्द्रमा तृतीय स्थान का स्वामी होने से श्लोक ६ के अनुसार अशुभ (मृत्युकारक) होकर अशुभफल देने वाला होता है। (४) अशुभयोग :-मंगल सप्तम स्थान (केन्द्र स्थान) का स्वामी है और श्लोक ७ के अनुसार शुभों में उसकी गणना की गयी है, परन्तु वह मारक स्थान का स्वामी और द्वादश स्थान का स्वामी होने से अशुभ माना गया है और वह अशुभफलदायक होता है। निष्फल योग :-(१) शुक्र + बुध; (२) मंगल + बुध । सफल योग :-(१) शुक्र + शनि; (२) सूर्य+बुध; (३) सूर्य + शनि; (५) मंगल + शनि (निकृष्ट और सदोष) कारण मंगल द्वादश स्थान का स्वामी होने से दूषित है और सप्तम स्थान का स्वामी होने से कष्टदायक है। (६) शनि स्वयं अकेला राजयोगकारक है और श्रेष्ठफल दायक योग करता है। (७) शनि + बुध यह श्रेष्ठ योग है। शनि नवम और बुध पंचम स्थान का स्वामी है। ये दोनों त्रिकोण के स्वामी है और शनि दशम बलवान केन्द्र का स्वामी भी होने से इनका योग श्लोक २० के अनुसार श्रेष्ठ राजयोग होता है।