कृत्तिका नक्षत्र

कृत्तिका-नक्षत्र

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Nakshtra Description

कृत्तिका का अर्थ है बुना हुआ या जाल। वास्तव में यह अनेक तारों का सफेद गुच्छा है, जो तारों से बुने हुए जाल जैसा प्रतीत होता है। यह अपनी संयुक्त चमक से आकाश में अलग पहचाना जाता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के अनुसार कृत्तिकाएँ सात बहनें हैं। इनके नाम अम्बा, दुला, नितत्नी, अभ्रयन्ती, मेघयन्ती, वर्षयन्ती व चुपुणिका हैं। पौराणिक कथा के अनुसार छह कृत्तिकाओं ने कार्तिकेय को माँ के रूप में दूध पिलाकर पालन-पोषण किया, इसीलिए कार्तिकेय को षण्मातुर कहा गया। इसका पाश्चात्य नाम 'प्लीएडस' है, जिसका अर्थ 'जमघट' है। एक यूनानी आख्यान के अनुसार ये विश्व को कन्धों पर धारण करने वाले एटलस की पुत्रियाँ थीं, जिन्हें एटलस ने खुश होकर आसमान में स्थापित कर दिया। इस नक्षत्र के प्रमुख तारे अतितप्त दानव हैं और इनका सतह तापमान 15,000 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक है।



Computations

तारों की संख्या 6 से अधिक तारों का वैज्ञानिक नाम : प्लीएड्स अयनांश 26°40' से 40°00' तक राशि सूर्य का वास 11 मई से 25 मई तक (लगभग) कृत्तिका नक्षत्र का वृक्ष उदुम्बर (गूलर)



Tree

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गूलर

उदुम्बर अर्थात् जल (उद्) तक जाने (अम्ब) वाला। इसे संस्कृत में जन्तुफल, यज्ञांग, हेमदुग्धक, यज्ञोदुम्बर, फारसी में अंजीरे-आदम कहते हैं। इसका प्रचलित नाम गूलर तथा वैज्ञानिक नाम फाइकस रेसीमोसा है। यह सामान्य से लेकर बड़े आकार का फैलने वालावृक्ष है, जो आर्द्र क्षेत्रों में जलधारा के किनारों पर पाया जाता है। यह काफी मात्रा में फल देता है। कच्चे फल की सब्जी व अचार बनायी जाती है तथा पके फल खाये जाते हैं। गर्मियों में वातावरण को शीतल करने में इस वृक्ष का विशेष योगदान रहता है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण गुण खून की गर्मी (रक्त पित्त) को शान्त करना है। इसके लिए इसके फल तथा छाल का उपयोग करते हैं। मधुमेह में फल या जड़ का रस, घाव धोने में छाल का रस तथा पेचिश में जड़ लाभदायक होती है।



Poranik Mahatav

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हवन में इसकी समिधा का प्रयोग श्रेष्ठ माना जाता है। इसकी समिधा शुक्र ग्रह के कुप्रभावों को शान्त करती है। कश्यप ऋषि ने गूलर को मंगलकारी वृक्ष कहा है। गूलर के फल से बहुत से जंगली जीवों व पक्षियों को पोषण मिलता है अतः इसका रोपण अत्यधिक पुण्यकारी है। वृक्षायुर्वेद के अनुसार घर के दक्षिण में गूलर शुभ होता है, किन्तु उत्तर दिशा में होने पर हानिकारक होता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार नरसिंह भगवान् ने हिरण्याकश्यप के वध के बाद अग्नि से तप्त अपने नाखूनों को गूलर में चुभोकर इसकी अग्नि शान्त की थी।

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