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मृगशीर्ष-नक्षत्र
मृगशीर्ष अर्थात् मृग का सिर। आसमान में मृग नाम का तारामण्डल बहुत प्रसिद्ध है, जिसे पाश्चात्य में ओरायन (Orion = शिकारी) तथा गाँवों में 'हिरनी का खटोला' कहते हैं। इस काल्पनिक मृग आकृति के सिर के स्थान पर तीन धुंधले तारों का एक समूह है, जिसे मृगशीर्ष नक्षत्र कहते हैं। बाल गंगाधर तिलक ने अपने ग्रन्थ 'ओरायन' में इस नक्षत्र की वेदों में वर्णित स्थिति व आज की स्थिति के आधार पर वेदों का रचनाकाल निश्चित किया है।
तारों की संख्या तारे का वैज्ञानिक नाम मृग मंडल के लेम्डा, फाई-1 व फाई-2 तारे अयनांश 53°20' से 66°40' तक राशि वृष/मिथुन सूर्य का वास 25 मई से 8 जून तक (लगभग)
खद अर्थात् स्थैर्य। स्थिरता, दृढ़ता प्रदान करने के औषधीय गुणों के कारण इसे संस्कृत में खदिर कहा गया, जो बाद में बिगड़कर खैर हो गया। यह एक मध्यम ऊँचाई का काँटेदार पेड़ है, जिसकी लकड़ी से कत्था या खैर तैयार किया जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम अकेसिया कटेचू है। इसको संस्कृत में रक्तसार, गायत्री, दन्तध्वावन आदि उपमाएँ दी गयीं। यह सूखे क्षेत्रों में होता है। इसकी पत्तियाँ बहुत छोटी-छोटी तथा लकड़ी गाढ़े लाल रंग की होती है।
भारत में कत्था उत्पादन का यह मुख्य साधन है। इसकी परिपक्व लकड़ी को छोटे टुकड़ों में काटकर पानी में उबालने के बाद प्राप्त रस को ठंडा करने से कत्था और कच्छ मिलता है। कत्था खाने के काम में लाया जाता है तथा कच्छ को चर्मशोधन, रँगाई व अन्य औद्योगिक उपयोगों में लाया जाता है। औषधीय रूप में इसका प्रयोग चर्मरोग, खाँसी, गला-मुख-मसूड़े की शिथिलता, अतिसार, प्रमेह, रक्त-विकार तथा फोड़े आदि में किया जाता है। बलुआर सूखे क्षेत्रों में आसानी से वनीकरण करने हेतु यह एक श्रेष्ठ प्रजाति है