मिथुन राशि

Rashi Description

मिथुन लग्न का स्वामी बुध होता है। यह वायु तत्व की लग्न है तथा प्रकृति से द्विस्वभाव है, इसे बांझ राशि भी कहते हैं, परन्तु असम राशि होने के कारण पुरुष राशि है। इस राशि में न तो कोई ग्रह उच्च का होता है और न ही नीच का। यह पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करता है तथा शीर्षोदय राशि है गला तथा बाहु मिथुन राशि के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। यह क्रूर राशि है। मिथुन राशि का स्वामी बुध मस्तिष्क की क्षमता का परिचायक है। मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातक के हाथ-पैर लम्बे और दुबले होते हैं। उसकी नाक कुछ खड़ी होती है, चेहरे से तीक्ष्णता और प्रसन्नता टपकती है। मिथुन लग्न वालों के नेत्र बहुत ही आकर्षक एवं गहरे होते हैं। "मिथुने नयने मनमते" अर्थात् मिथुन लग्न में जन्म लेने वाले जातक के नेत्र बहुत मतवाले अर्थात् मस्ती भरे होते हैं। यह कहना असत्य नहीं है कि मिथुन वालों की प्राय ,बड़ी-बड़ी मुस्कराती हुई आंखें, आपसी तथा निकटवर्ती लोगों में चर्चा का विषय होती हैं। विशेष रूप से वह जब किसी रुपवती कन्या की ओर हो। मिथुन लग्न में जन्मे लोग बड़े क्रियाशील तथा गतिशील होते हैं। उनका चेहरा भरा हुआ होता है। उनकी दाढ़ी के पास कुछ दबाव सा होता है। उनका वर्ण गौर नहीं होता, प्राय: घर में अन्य भाई-बहनों की अपेक्षाकृत दबा हुआ होता है। प्रायः मिथुन लग्न के लोग लम्बे होते हैं। यदि लग्न वर्गोत्तम हो तो शारीरिक और मानसिक लक्षणों की अधिकता विद्यमान होती है। ऐसे जातक, जो मिथुन लग्न में जन्म लेते हैं, उनका मस्तिष्क बड़ा चंचल होता है। उन्हें लिखने-पढ़ने में बहुत रुचि होती है। मिथुन लग्न का जातक अति कुशाग्र बुद्धि का होता है। उसका विचार करने का तरीका वैज्ञानिक तथा तर्कसंगत होता है। वह उत्तम वक्ता तथा वार्तालाप में निपुण होता है। बात की छानबीन करने वाला, किसी बात को सुगमता से स्वीकार न करने वाला, किसी भी बात में रहने वाला, हंसी-मजाक में चुटीले व्यंग्य करने वाला परन्तु स्वभाव से प्रमोदी होता है। ऐसा जातक तर्क में बहुत निपुण होता है। मिथुन लग्न के जातक गणित तथा किसी भी चीज का मैकेनिज्म समझने में निपुण होते हैं। विषय की क्लिष्टता को सरलता से हल कर लेते हैं। ऐसे जातकों को विपरीत योनि से सम्बन्धों के प्रति अति सतर्क रहना चाहिये। उनको अपनी योग्यता और बौद्धिक क्षमता पर बड़ा भरोसा होता है। वे बहुत चालाक और चतुर होते हैं तथा अपना काम निकाल लेने की अद्भुत कला उनमें होती है। ऐसे जातकों के साथ धोखाधड़ी होना भी सम्भव होता है। यदि पंचम भाव में शनि और बुध ऐसे ग्रह स्थित हों तो जातक स्वयं दूसरों को धोखा देने में अथवा धूर्ततापूर्ण व्यवहार करने में निपुण होता है। मिथुन लग्न का जातक प्रायः जो सोचता है, वह कहता नहीं है और जो कहता है, वह बिल्कुल सही नहीं होता और जो करता है, वह किसी पर पहले अभिव्यक्त नहीं होता। ऐसा जातक प्रायः अति व्ययी होता है और अपने किये जाने वाले अर्थहीन व्यय को भी अपने ढंग से औचित्यपूर्ण मान लेता है। ऐसा जातक अपना क्रोध व्यक्त नहीं करता, परन्तु बड़े कुटिल ढंग से चतुरतापूर्वक बदला लेने की चेष्टा करता है। जातक के हाथ-पैर लम्बे और दुबले, नेत्र सुन्दर और नाक खड़े होते हैं। चेहरे से तीक्ष्णता और प्रसन्नता टपकती है। वह कुशाग्रबुद्धि, उत्तम वक्ता, अत्यन्त उद्यमी, वार्तालाप में कुशल, बात का छानबीन करने वाला, सुगमता से समझने वाला, बातों का तत्त्व जानने वाला, कला-कौशल का प्रेमी इन्द्रियों के वशीभूत रहने वाला, बहस करने में प्रभावोत्पादक और तर्क-पूर्ण होता है । वह सदा परिवर्तनशील अर्थात् किसी कार्य में विशेष समय तक दृढ़ तथा चिर-स्थिर नहीं रहता है | किसी विषय का वर्णन विशेष रूप से और प्रभाव-पूर्ण कर सकता है। कठिन विषयों की व्याख्या सुगमता पूर्वक और स्पष्ट रूप से कर सकता है। उसमें किसी विषय को साङ्गोपाङ्ग सोचने की दूर-दर्शिता होती है । उसका लेख तथा वाद-विवाद, प्रभावशाली तथा योग्यतापूर्ण होता है। यह बुद्धिमान,तीक्ष्ण-वुद्धि, दक्ष विवेचक, चतुर कार्य कुशल, परन्तु क्रोधी और अपने चरित्र तथा मेधाबल से प्रभाव तथा उन्नति प्राप्त करने वाला होता है। कला तथा विज्ञान के प्रति विशेष रुपि सती । संयमी तथा अधीर होने के कारण आपल्यता है। उसके निकट संबंधी उसके सहायक होते है। उसे मानसिक शक्ति नही होती है । कन्या होने से कुछ विशेष गुण दोषा -कठोर बात करने वाली, स्वभाव को कड़ी, अतिव्ययी अर्थात खर्चीली स्वभाव वाली और वायु तथा कफ प्रकृति की होती है। मिथुन लग्न वाले के लिये शुक्र सबसे उत्तम ग्रह होता है। चंद्रमा, सूर्य और मंगल अनिष्टकारी होते हैं। शुक्र और बुधके योग से भाग्य की उति होती है। श. और यू. का सम्बन्ध शुभदायी न होकर प्राया अनिए-कारी होता है। चंद्रमा, सूर्य और मंगलप्रायः मारकेश होते हैं। केतु के द्वितीय, सप्तम अथवा द्वादश में में चंद्रमा के साथ रहने से केतु की दशान्तर दशा मंा मारकेश होता है। यदि राहू बृहस्पति के साथ होकर द्वितीय स्थान में हो तो राहु की महादशा में जब बृहस्पति का अन्तर आता है तो अनिष्ट होता है। बुध यदि तृतीयस्थान में बैठा हो तो बुध की दशान्तरदशा में शुभ फाल होता है। ऐसे योग में जातक कार्य-निपुण होता है। यदि चंद्रमा द्वितीय स्थान में हो तो शु. की दशा में भाग्योन्नति होती है। राहु की दशा में रोग और बन्धनादि का भय होता है। परन्तु राहु मृत्युकारक नहीं होता है। नवम भांश अर्थात्३० अशा तक साल के होने से प्राकृतिक स्वभाव को पूर्णरूप से प्रकट करता है। चेतावनी। ऐसे जातक को फेंफड़े और तन्तु-जनित (Nervous System) रोग प्रायः हुआ करते हैं। इस कारण स्वच्छ वायु एवं सुबह टहलना इनको अवश्य करना चाहिए । उत्तेजना देने वाली क्रियाओं से इनको बचना चाहिए । वीर्य रक्षा, गर्म कपड़ों का प्रयोग तथा मिताहारी होना भी आवश्यक है । मिथुन लग्न कुशाग्रता दिखाती है, ऐसे लोग १० काम में हाथ डालेंगे, और अधिकतर को कर भी लेंगे | बहुत गहराई में न उतर परन्तु, काम तो चल ही जाता है | इनका जीवन का एक मात्र उद्देश धन कामना होता है, ये राजकुमार हैं उनको धन चाहिए | सेल्स एवं मार्केटिंग के लिए ये लोग उत्तम होते हैं | घर परिवार का माहौल बदलता रहता है, एक सा नहीं रहता | बातों के धनी होते है, ऐसे लोग रेडियो पर, टीवी, विडियो आदि के माध्यम से समाज से जुड़ने के लिए लालायित रहते हैं | संभवतः इनकी माता ने सोना, जवाहरात बहुत जोड़ा होता हैं, और ऐसा इनको लगता भी है | इनका माता से बात करने का तरिका अन्य लोगों से सर्वदा भिन्न होता हैं | ऐसे लोग बार बार व्यापार करना चाहते हैं, कर्ज कर या बार बार दिवालिया होते हैं, लेकिन पुनः प्रयास करते हैं | घर के हर सामन के विषय में बहुत सोच विचार के ही पैसा लगाते हैं, ऐसा सोफा | और जब कमा लेंगे तो वैसा लेंगे | बहुत ही अधिक धन का हिसाब लगा कर सामान पर खर्च करते हैं | बच्चों को कितना खेलना चाहिए, कितना आनंद करना चाहिए, कितना टीवी देखना चाहिए ये सभी शुक्र के विषय का अंदाजा लगाते हैं | इन्हें व्यापार में प्रतिद्वंदी बहुत मिलते है, जमना मुशकिल रहता है | कई बार विरोध, कर्जा एवं लड़ाई, सघर्ष इनके साथ लगा रहता हैं | वे पत्नी से अधिक वार्ता नहीं कर पाते, चुकीं वो दार्शनिक विचार की आदर्शवादी होती हैं, एवं वे पति को दार्शनिक विचारों के प्रति जाग्रत करती हैं | गुरु की स्तिथि से इसपर अधिक कहा जा सकता है | आयु अच्छी रहती है, उनका जीवन अनुशासित रहता है, खुल कर मन की करना संभव नहीं होता | वे तो उच्च शिक्षा पाते है, या तरह तरह के विषय जैसे दर्शन (विभिन्न धर्मों के विषय में जानना), भिन्न भिन्न लेखकों की पुस्तक पड़ना, विभिन्न विषयों पर लिखना या पुस्तक लिखना तक संभव होता हैं | एक ही विषय को दो दृष्टिकोण से देखना जानने में इनकी रूचि होती हैं | पेशे से बहुमखी होते है, कभी पाठन, मददगारों की सेवा करना | लोगों को सलाह देना, की ऐसा करो करो और ऐसा हो जायेगा | ये पूर्णतः डिप्लोमेटिक होते है | वे जब तक नेटवर्क में फैलाव नहीं करते वे कमज़ोर महसूस करते हैं | उनको लोगों से जुड़ने से शक्ति मिलती है | वे शत्रु से भी बातों से ही जीत सकते है, यदि मंगल शुभ है, तो अच्छे व्यापारिक व्यक्ति हो सकते हैं | प्रायः दूसरों के व्यापार में प्रवेश करना या, अन्य का व्यापार जानना और समझने में इन्हें रूचि होती है | कल्पना शक्ति अच्छी होती है, कवि, नायक (एक्टिंग), एक अच्छे जीवन का विज़न इनके पास होता हैं | लोगों को अध्यात्म की और ले जाने में ये समर्थ हो सकते है |

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Computations

मिथुन लग्न के लिए शुभाशुभ योग (१) -चन्द्रमा द्वितीय स्थान का अधिपति होकर उसे श्लोक ११ के अनुसार मारकत्व का दोष नहीं होने से वह अशुभ फल नहीं देता लेकिन शुभफल देता है ( मध्यम-फल ) (२) शुभयोग :--शुक्र द्वादश स्थान का अधिपति होकर बुध से स्थान साहवयं के कारण और अन्य ग्रहों के साहचर्य के अलावा वह पंचम (त्रिकोण ) स्थान का स्वामी होने से श्लोक ६ के अनुसार शुभ माना गया होकर शुभफलदायक होता है। (३) शुभयोग :--बुध चतुर्थ स्थान (केन्द्र स्थान) का अधिपति होकर उसे श्लोक ११ के अनुसार अल्पदोष लगता है और शुक्र का स्थान साहचर्य प्राप्त होने पर राजयोग कारक होता है और इतने पर भी वह यदि इन स्थानों में हो तो निश्चयपूर्वक राजयोग करके शुभफल देनेवाला होता है। (४) अशुभयोग :- -मंगल पापग्रह होकर श्लोक ६ के अनुसार षष्ठ और एका- दश स्थानों का स्वामी होने से विशेष अशुभ है और विशेष अशुभफलदायक होता है। (५) अशुभयोग :-गुरु सप्तम स्थान का अधिपति होने से मारक होकर सप्तम और दशम स्थानों का (केन्द्रों का) स्वामी होता है और श्लोक ७ के अनुसार और केन्द्राधिपत्य दोष श्लोक १० के अनुसार ये दोष बलवत्तर है और शनि के सह- स्थानाधिपत्य के दोष के कारण से भी वह अशुभ माना गया है। यह मारक होकर अशुभ फल देता है (६) अशुभयोग :-सूर्य पापग्रह होकर तृतीय स्थान का अधिपति होने से श्लोक ६ के अनुसार वह अशुभ है और अशुभफल देने वाला होता है। निष्फल योग-(१) गुरु + शुक्र; ( दोनों ही दूषित होते हैं); (२) गुरु+ शनि; (३) बुध + शनि (शनि अष्टम स्थान का स्वामी होने से (३) तीसरा योग श्लोक २२ के अनुसार निष्फल होता है । सफल योग:-बुध + शुक्र

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