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पूर्वाषाढ़ा-नक्षत्र
आषाढ़ा या आषाढ़ का अर्थ है - अपराजित। वास्तव में आकाश में एक ऐसा तारामण्डल है, जिसमें एक धनुषधारी प्राणी की आकृति प्रतीत होती है, इसलिए इसे पाश्चात्य में सेजिटेरियस (धनुर्धर), यूनानी में तोजोतस (धनुर्धर) व भारत में धनु कहा जाता है। इस तारामण्डल में शुरू में उगने वाले दो तारों डेल्टा व इप्सिलोन धनु को पूर्वाषाढ़ा और बाद में उगने वाले दो तारों को सिग्मा व जीटा धनु को उत्तराषाढ़ा कहा जाता है। अरब में पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र को अल् आम अल् वारिद (आने वाला शुतुरमुर्ग) तथा उत्तराषाढ़ा नक्षत्र को अल् न आम अल् साविर (जाने वाला शुतुरमुर्ग) कहा। चीन में इन नक्षत्रों (हसीयू) को क्रमशः कि (छलनी) और तेब (कलछी) कहा गया है।
तारों की संख्या : 2 तारे का वैज्ञानिक नाम धनु मण्डल के डेल्टा व इप्सिलोन तारे अयनांश 253°20' से 266°40' तक राशि धनु सूर्य का वास 29 दिसम्बर से 11 जनवरी तक (लगभग)
हिन्दी में इसे जल माला, सुकुलवेत व वेद नाम से जानते हैं। जल के बहुत करीब उगने के कारण इसे वंजुल (वन अर्थात् जल) कहा गया.इसके अन्य संस्कृत उपनाम हैं - जलवेतस, जलसंभव, वानीर, नादेय, : हिन्दी में इसे जल माला, सुकुलवेत व वेद नाम से जानते हैं। जल के बहुत करीब उगने के कारण इसे वंजुल (वन अर्थात् जल) कहा गया.इसके अन्य संस्कृत उपनाम हैं - जलवेतस, जलसंभव, वानीर, नादेय, : हिन्दी में इसे जल माला, सुकुलवेत व वेद नाम से जानते हैं। जल के बहुत करीब उगने के कारण इसे वंजुल (वन अर्थात् जल) कहा गया.इसके अन्य संस्कृत उपनाम हैं - जलवेतस, जलसंभव, वानीर, नादेय, : निकुञ्चक, व्याधिपातक, परिव्याध। अंग्रेजी में इसे इन्डियन विलो तथा वैज्ञानिक भाषा में सैलिक्स टेट्रास्पर्मा कहते हैं। उत्तर प्रदेश में इसे बेंत या भैंसा नाम से भी जाना जाता है। यह वृक्ष पूरे भारत में 1800 से 2100 मीटर ऊँचाई तक नदी, नालों के किनारे पाया जाता है। इसके वृक्ष छोटी या मध्यम ऊँचाई के होते हैं
इसे वरुण देवता के प्रिय वृक्ष के रूप में माना जाता है, वर्षा हेतु यज्ञ कराने के लिए समिधा के रूप में इसके प्रयोग का वर्णन मिलता है। इसमें नर व मादा वृक्ष अलग-अलग होता है, जिसे लोग प्रेमकथा से भी जोड़ते हैं। नोट : पूर्वाषाढ़ा-नक्षत्र के लिए संस्तुत वनस्पति शब्द वंजुल से कुछ लोग अशोक (Saraca Asoka) वृक्ष ग्रहण करते हैं। महाराष्ट्र के ग्रन्थों में इस नक्षत्र के लिए बेंत (Calamus sp.) वनस्पति का वर्णन है। किन्तु वास्तव में वंजुल शब्द से प्राचीन संस्कृत नाटकों में जलवेतस वनस्पति ही ग्रहण की गयी है। दक्षिण भारत में सैलिक्स की प्रजातियों के लिए वंजुल से मिलते-जुलते शब्द ही प्रयुक्त होते हैं