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उत्तराषाढ़ा-नक्षत्र
पूर्वाषाढ़ा-नक्षत्र के परिचय में स्पष्ट किया जा चुका है कि धनु मंडल के ढेर से उगने वाले दो तारों सिग्मा व जीटा को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के नाम से जाना जाता है। आषाढ़ महीने का नाम इन्हीं नक्षत्रों से पड़ा। वास्तव में आकाशगंगा का केन्द्र आषाढ़-नक्षत्र की दिशा में ही है, आकाशगंगा के केन्द्र की ओर होने के कारण इन नक्षत्रों की दिशा में आकाशीय पिंडों की अत्यधिक सघनता मिलती है, इसमें अनेक ब्लैकहाल व सघन तारापुंज हैं, जिसकी परिक्रमा आकाशगंगा के शेष तारे निरन्तर करते रहते हैं। आकाशगंगा के केन्द्र से हमारा सूर्यमण्डल तीस हजार प्रकाशवर्ष दूर है। ऐसा लगता है कि आषाढ़ा (अर्थात् अविजित) नक्षत्र को यह नाम इसीलिए दिया गया, क्योंकि अत्यधिक दूरी व ब्लैकहोल जैसे खतरनाक पिण्डों के कारण इस नक्षत्र दिशा को जीत पाना (पार कर पाना) सम्भव नहीं है। अथर्वसंहिता में पूर्वाषाढ़ा से अन्न व उत्तराषाढ़ा से तेज प्रदान करने की प्रार्थना की गयी है।
तारों की संख्या 2 तारे का वैज्ञानिक नाम धनु मण्डल के सिग्मा व जीटा तारे अयनांश 266°40' से 280°00' तक राशि धनु सूर्य का वास 11 जनवरी से 24 जनवरी तक (लगभग)
पनस अर्थात् स्तुति करने वाला। कटहल वृक्ष को यह नाम क्यों दिया गया, इसका कोई स्पष्ट कारण नहीं दिखता। एक सम्भावित कारण यह हो सकता है कि इसका काष्ठ, देवस्तुति में प्रयुक्त होने वाले वाद्ययंत्रों होता है। इसका फल काँटे युक्त होता है, अतः इसे कन्टफल में प्रयुक्त कहा गया, जो बाद में बिगड़कर कटहल हो गया। इस वृक्ष का वैज्ञानिक नाम आर्टोकार्पस हेटेरोफिलस है तथा अंग्रेजी में इसे जैक फूट वृक्ष कहते यह पूरे भारत के आर्द्र-गर्म क्षेत्र में पैदा होता, छाया पसन्द करता है तथा पाला वाले क्षेत्रों में कम होता है। दक्षिण भारत में यह बहुत अधिक उगाया जाता है
लकड़ी के बुरादे से निकले पीले रंग से पुजारी व बौद्ध भिक्षु अपना वस्त्र रंगते हैं। पत्ती श्राद्ध-तर्पण में पिण्डदान हेतु प्रयुक्त होती है।